वंदे मातरम् गीत का प्रथम पद इस प्रकार है वंदे मातरम्, वंदे मातरम्! सुजलाम्, सुफलाम्, मलयज शीतलाम्, शस्यश्यामलाम्, मातरम्! वंदे मातरम्! शुभ्रज्योत्सनाम् पुलकितयामिनीम्, फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्, सुहासिनीम् सुमधुर भाषिणीम्, सुखदाम् वरदाम्, मातरम्! वंदे मातरम्, वंदे मातर वन्दे मातरम् विवरण 'वन्दे मातरम्' भारत का राष्ट्रीय गीत है, जिसके प्रथम दो पद संस्कृत में तथा शेष पद बंगाली भाषा में हैं। इसका स्थान राष्ट्रीय गान 'जन गण मन' के बराबर है। रचनाकार बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय अंगीकृत 24 जनवरी, 1950 संगीत यदुनाथ भट्टाचार्य विशेष रवींद्रनाथ टैगोर ने इस गीत को स्वरबद्ध किया और पहली बार 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में यह गीत गाया गया। अन्य जानकारी अरबिंदो घोष ने इस गीत का अंग्रेज़ी में और आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने इसका उर्दू में अनुवाद किया था। 14 अगस्त, 1947 की रात्रि में संविधान सभा की पहली बैठक का प्रारंभ ‘वंदे मातरम’ के साथ और समापन ‘जन गण मन...’ के साथ हुआ था। वंदे मातरम् भारत का राष्ट्रीय गीत है जिसकी रचना बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा की गई थी। इन्होंने 7 नवम्बर, 1876 ई. में बंगाल के कांतल पाडा नामक गाँव में इस गीत की रचना की थी। वंदे मातरम् गीत के प्रथम दो पद संस्कृत में तथा शेष पद बंगाली भाषा में थे। राष्ट्रकवि रवींद्रनाथ टैगोर ने इस गीत को स्वरबद्ध किया और पहली बार 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में यह गीत गाया गया। अरबिंदो घोष ने इस गीत का अंग्रेज़ी में और आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने इसका उर्दू में अनुवाद किया। 'वंदे मातरम्' का स्थान राष्ट्रीय गान 'जन गण मन' के बराबर है। यह गीत स्वतंत्रता की लड़ाई में लोगों के लिए प्ररेणा का स्रोत था। अरबिन्द का अनुवाद गद्य रूप में श्री अरबिन्द घोष द्वारा किए गए अंग्रेज़ी अनुवाद का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है- मैं आपके सामने नतमस्तक होता हूँ। ओ माता, पानी से सींची, फलों से भरी, दक्षिण की वायु के साथ शान्त, कटाई की फ़सलों के साथ गहरा, माता! उसकी रातें चाँदनी की गरिमा में प्रफुल्लित हो रही हैं, उसकी ज़मीन खिलते फूलों वाले वृक्षों से बहुत सुंदर ढकी हुई है, हंसी की मिठास, वाणी की मिठास, माता, वरदान देने वाली, आनंद देने वाली। निर्माण 1870 के दौरान अंग्रेज़ हुक्मरानों ने 'गॉड सेव द क्वीन' गीत गाया जाना अनिवार्य कर दिया था। अंग्रेज़ों के इस आदेश से बंकिमचंद्र चटर्जी को, जो तब एक सरकारी अधिकारी थे, बहुत ठेस पहुँची और उन्होंने संभवत: 1876 में इसके विकल्प के तौर पर संस्कृत और बांग्ला के मिश्रण से एक नए गीत की रचना की और उसका शीर्षक दिया "वंदे मातरम्" शुरुआत में इसके केवल दो पद रचे गए थे, जो केवल संस्कृत में थे। मूल गीत सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम् सस्य श्यामलां मातरंम् . शुभ्र ज्योत्सनाम् पुलकित यामिनीम् फुल्ल कुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्, सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम् . सुखदां वरदां मातरम् " कोटि कोटि कन्ठ कलकल निनाद कराले द्विसप्त कोटि भुजैर्ध्रत खरकरवाले के बोले मा तुमी अबले बहुबल धारिणीम् नमामि तारिणीम् रिपुदलवारिणीम् मातरम् ॥ तुमि विद्या तुमि धर्म, तुमि ह्रदि तुमि मर्म त्वं हि प्राणाः शरीरे बाहुते तुमि मा शक्ति, हृदये तुमि मा भक्ति, तोमारै प्रतिमा गडि मन्दिरे-मन्दिरे ॥ त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी कमला कमलदल विहारिणी वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम् नमामि कमलां अमलां अतुलाम् सुजलां सुफलां मातरम् ॥ श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम् धरणीं भरणीं मातरम् ॥ गीत का विरोध गीत के पहले दो छंदों में मातृभूमि की सुंदरता का गीतात्मक वर्णन किया गया था, लेकिन 1880 के दशक के मध्य में गीत को नया आयाम मिलना शुरू हो गया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि बंकिम चंद्र ने 1881 में अपने उपन्यास 'आनंदमठ' में इस गीत को शामिल कर लिया। उसके बाद कहानी की माँग को देखते हुए उन्होंने इस गीत को और लंबा किया। बाद में जोड़े गए हिस्से में ही 'दशप्रहरणधारिणी' कमला और वाणी के उद्धरण दिए गए हैं। लेखक होने के नाते बंकिमचंद्र को ऐसा करने का पूरा अधिकार था और इसको लेकर तुरंत कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं हुई। यानी तब किसी ने ऐसा नहीं कहा कि यह मूर्ति की वंदना करने वाला गीत है या 'राष्ट्रगीत' नहीं है। काफ़ी समय बाद जब विभाजनकारी मुस्लिम और हिन्दू सांप्रदायिक ताकतें उभरीं तो यह राष्ट्रगीत से एक ऐसा गीत बन गया, जिसमें सांप्रदायिक निहितार्थ थे। 1920 और ख़ासकर 1930 के दशक में इस गीत का विरोध शुरू हुआ गीत के राग व अवधि वर्षों से 'संगीत सरिता', 'स्वर सुधा' और 'राग-अनुराग' जैसे कार्यक्रम सुनने में आते रहे हैं। इन कार्यक्रमों से यह ज्ञात हो जाता है कि ढेर सारे फ़िल्मी गीत कौन-कौन से राग पर आधारित हैं। पर खेद है कि अब तक यह जानकारी नहीं मिल सकी कि राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् और राष्ट्रीय गान 'जन गन मन' किन रागों पर आधारित हैं। यह दोनों ही रचनाएँ बांग्ला भाषा के कवियों से निकली हैं। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान रची गई इन रचनाओं को ये कवि स्वयं जन सभाओं में गाया करते थे, जिससे लगता है कि यह रचनाएँ 'रविन्द्र संगीत' में निबद्ध है। राष्ट्रीय गान के तो रचनाकार ही रवीन्द्रनाथ टैगोर हैं। बंकिमचंद्र चटर्जी द्वारा रचित 'वंदे मातरम्' तो बहुत लम्बी रचना है, जिसमें माँ दुर्गा की शक्ति का भी बख़ान है, पर पहले अंतरे के साथ इसे सरकारी गीत के रूप में मान्यता मिली है और इसे राष्ट्रीय गीत का दर्ज़ा देकर इसकी न केवल धुन बल्कि गीत की अवधि तक संविधान सभा द्वारा तय की गई है, जो 52 सेकेण्ड है। इस तरह लगता है कि 'राष्ट्रीय गान' और 'राष्ट्रीय गीत' के न सिर्फ़ राग बल्कि इसमें बजने वाले साज़ भी लगभग तय है राष्ट्रीय गीत की मान्यता 24 जनवरी, 1950 को संविधान सभा ने निर्णय लिया कि स्वतंत्रता संग्राम में 'वन्देमातरम' गीत की उल्लेखनीय भूमिका को देखते हुए इस गीत के प्रथम दो अन्तरों को 'जन गण मन..' के समकक्ष मान्यता दी जाय। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान सभा का यह निर्णय सुनाया। "वन्देमातरम' को राष्ट्रगान के समकक्ष मान्यता मिल जाने पर अनेक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय अवसरों पर 'वन्देमातरम' गीत को स्थान मिला। आज भी 'आकाशवाणी' के सभी केन्द्रों का प्रसारण 'वन्देमातरम' से ही होता है। आज भी कई सांस्कृतिक और साहित्यिक संस्थाओं में 'वन्देमातरम' गीत का पूरा-पूरा गायन किया जाता है। राष्ट्रगीत का दर्जा जब आज़ाद भारत का नया संविधान लिखा जा रहा था, तब वंदे मातरम् को न राष्ट्रगान के रूप में अपनाया गया और न ही उसे राष्ट्रगीत का दर्ज़ा मिला। लेकिन संविधान सभा के अध्यक्ष और भारत के पहले राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद ने 24 जनवरी, 1950 को घोषणा की कि वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत का दर्ज़ा दिया जा रहा है। 'वन्देमातरम' गायन 15 अगस्त, 1947 को प्रातः 6:30 बजे आकाशवाणी से पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का राग-देश में निबद्ध 'वन्देमातरम' के गायन का सजीव प्रसारण हुआ था। आज़ादी की सुहानी सुबह में देशवासियों के कानों में राष्ट्रभक्ति का मंत्र फूँकने में 'वन्देमातरम' की भूमिका अविस्मरणीय थी। ओंकारनाथ जी ने पूरा गीत स्टूडियो में खड़े होकर गाया था; अर्थात उन्होंने इसे राष्ट्रगीत के तौर पर पूरा सम्मान दिया। इस प्रसारण का पूरा श्रेय सरदार बल्लभ भाई पटेल को जाता है। पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का यह गीत 'दि ग्रामोफोन कम्पनी ऑफ़ इंडिया' के रिकॉर्ड संख्या STC 048 7102 में मौजूद है। इतिहास सन 1905 के बंगाल के स्वदेशी आंदोलन ने वंदे मातरम् को राजनीतिक नारे में तब्दील कर दिया। राष्ट्रवादी विरोध-प्रदर्शन की अगुआई करते हुए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसे गाया और अरविंद घोष ने बंकिमचंद्र को राष्ट्रवाद का ऋषि कहकर पुकारा। सन 1920 तक सुब्रह्मण्यम भारती तथा दूसरों के हाथों विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनूदित होकर यह गीत राष्ट्रगान की हैसियत पा चुका था। बहरहाल, सन 1930 के दशक में वंदे मातरम् की इस हैसियत पर विवाद उठा और लोग इस गीत की मूर्ति-पूजकता को लेकर आपत्ति उठाने लगे। जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में गठित एक समिति की सलाह पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने सन 1937 में इस गीत के उन अंशों को छाँट दिया, जिनमें बुतपरस्ती के भाव ज़्यादा प्रबल थे और गीत के संपादित अंश को राष्ट्रगान के रूप में अपना लिया। गीत के ऐतिहासिक तथ्य 7 नवंबर 1876 में बंगाल के कांतल पाडा गांव में बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने 'वंदे मातरम' की रचना की थी। 1882 में वंदे मातरम बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय के प्रसिद्ध उपन्यास 'आनंदमठ' में सम्मिलित हुआ। 1896 में रवीन्द्र नाथ टैगोर ने पहली बार ‘वंदे मातरम’ को बंगाली शैली में लय और संगीत के साथ कलकत्ता के कांग्रेस अधिवेशन में गाया। मूलरूप से ‘वंदे मातरम’ के प्रारंभिक दो पद संस्कृत में थे, जबकि शेष गीत बांग्ला भाषा में। वंदे मातरम् का अंग्रेज़ी अनुवाद सबसे पहले अरविंद घोष ने किया। दिसम्बर 1905 में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में गीत को राष्ट्रगीत का दर्ज़ा प्रदान किया गया, बंग-भंग आंदोलन में ‘वंदे मातरम्’ राष्ट्रीय नारा बना। 1906 में ‘वंदे मातरम’ देवनागरी लिपि में प्रस्तुत किया गया, कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने इसका संशोधित रूप प्रस्तुत किया। 1923 में कांग्रेस अधिवेशन में वंदे मातरम् के विरोध में स्वर उठे। पं. नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, सुभाष चंद्र बोस और आचार्य नरेन्द्र देव की समिति ने 28 अक्तूबर 1937 को कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में पेश अपनी रिपोर्ट में इस राष्ट्रगीत के गायन को अनिवार्य बाध्यता से मुक्त रखते हुए कहा था कि इस गीत के शुरुआती दो पद ही प्रासंगिक है, इस समिति का मार्गदर्शन रवीन्द्र नाथ टैगोर ने किया। 14 अगस्त 1947 की रात्रि में संविधान सभा की पहली बैठक का प्रारंभ ‘वंदे मातरम’ के साथ और समापन ‘जन गण मन...’ के साथ हुआ। 1950 ‘वंदे मातरम’ राष्ट्रीय गीत और ‘जन गण मन’ राष्ट्रीय गान बना। 2002 बी.बी.सी. के एक सर्वेक्षण के अनुसार ‘वंदे मातरम्’ विश्व का दूसरा सर्वाधिक लोकप्रिय गीत है। स्वाधीनता संग्राम में राष्ट्रगीत की भूमिका बंगाल में चले आज़ादी के आंदोलन में विभिन्न रैलियों में जोश भरने के लिए यह गीत गाया जाने लगा। धीरे-धीरे यह गीत लोगों में लोकप्रिय हो गया। ब्रिट्रानी हुकूमत इसकी लोकप्रियता से सशंकित हो उठी और उसने इस पर प्रतिबंध लगाने पर विचार करना शुरू कर दिया। 1896 में 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' के 'कलकत्ता अधिवेशन' में भी गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने यह गीत गाया। पाँच साल बाद यानी 1901 में कलकत्ता में हुए एक अन्य अधिवेशन में चरन दास ने यह गीत पुनः गाया। 1905 में बनारस में हुए अधिवेशन में इस गीत को सरला देवी ने स्वर दिया। कांग्रेस के अधिवेशनों के अलावा भी आज़ादी के आंदोलन के दौरान इस गीत के प्रयोग के काफ़ी उदाहरण मौजूद हैं। लाला लाजपत राय ने लाहौर से जिस जर्नल का प्रकाशन शुरू किया, उसका नाम 'वंदे मातरम' रखा। अंग्रेज़ों की गोली का शिकार बनकर दम तोड़ने वाली आज़ादी की दीवानी मातंगिनी हज़ारा की जुबान पर आख़िरी शब्द 'वंदे मातरम' ही थे। सन 1907 में मैडम भीकाजी कामा ने जब जर्मनी के स्टटगार्ट में तिरंगा फहराया तो उसके मध्य में 'वंदे मातरम्' ही लिखा हुआ था।
Sunday, 25 January 2015
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